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Kahani: बेटियों का घर भरने के लिए बेटों पर बोझ क्यों डालना

” मम्मी जी माना कि बेटियों को देने सेबरकत होती है। लेकिन बेटियों को भी तो अपनी हैसियत के अनुसार ही देना चाहिए। भला यह क्या बात हुई कि बेटियों के घर भरने के लिए बेटे पर बोझ डाल दिया जाए”
बहु अनु ने कहा।


” बहु तुझे तो मेरी बेटी सालती है। अरे तेरे मायके का लाया हुआ सामान थोड़ी ना दे रही हूं। मैं तो अपने बेटे की कमाई में से दे रही हूं। अपनी बहन बेटी को जितना देगा उतना ही उसके पास लौट कर भी आएगा‌। लेकिन तुम आजकल की लड़कियों को समझ में आए तब ना “


ममता जी बहू को डांटते हुए बोली।
” मम्मी जी साल भर तो दीदी के ससुराल में कुछ ना कुछ प्रोग्राम लगा ही रहता है‌। फिर ऊपर से आए दिन आने वाले तीज त्यौहार। कितना बोझ बढ़ जाता है इन पर। जरा अपने बेटे के बारे में तो सोचिए। कहां से देंगे इतना सब कुछ”
अनु ने समझाना चाहा।


“तू अपनी जबान मत चला। मैं अपनी बेटी को दे रही हूं, किसी गैर को नहीं। कम से कम समान ऐसा तो जाना चाहिए कि उसका ससुराल में मान सम्मान बढ़े। चीज देखकर ससुराल वाले खुश हो जाए”
ममता जी ने कहा।


” मम्मी जी ससुराल में मान सम्मान कहां चीजों से बढ़ता है। वो तो बहू के संस्कारों और उसके काम से होता है। यह तो कुछ दिनों की ही बात होती है कि ससुराल वाले चीजों को देखकर खुश होते हैं। उसके बाद तो बहू का काम और उसका व्यवहार ही बोलता है”


अनु ने कहा।
” हां, तू तो रहने ही दे। तेरी समझाइश तेरे पास ही रख। अक्ल तो ढेले भर की नहीं है और मुझे समझाने चली। तुझसे ज्यादा दुनिया देखी है मैंने। सब जानती हूं मैं। और तेरा पैसा खर्च नहीं करवा रही हूं जो तु मुझे समझा रही है “
ममता जी ने बस ये बात कह कर अनु को चुप करवा दिया


खैर ममता जी तैयार होकर बाजार निकल गई। शाम के छह बज रहे थे। इस समय अनु के पति महेश का ऑफिस से आने का समय हो जाता था।

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थोड़ी देर में महेश घर पहुंच गया तो अनु ने उसके लिए चाय नाश्ता तैयार कर उसे दे दिया। और उसके साथ ही चाय पीने बैठ गई। सिर्फ दो कप चाय देखकर महेश ने पूछा,


” सिर्फ दो कप चाय? मम्मी कहां है?”
” बाजार गई है। दीदी के यहां जो सामान भेजना है वो खरीदने के लिए। दिन में धूप तेज होती है इसलिए शाम को गई है”


” हां, ये बात तो है। गर्मी वाकई बहुत ज्यादा है। सोचा था कि इस बार ए सी खरीद लेंगे पर..”
कहते-कहते महेश रुक गया। ये देखकर अनु ने उसके हाथ पर हाथ रखा और कहा,
” क्यों चिंता करते हो? धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा”


” क्यों चिंता ना करूं? इतनी इनकम है नहीं। महीने के पैंतीस हजार ही तो कमाता हूं। उसमें घर के सारे खर्चे, सुमित की
पढ़ाई और कोचिंग का खर्चा और आए दिन आने वाले मानसी के ससुराल के खर्चे। यह तो शुक्र मनाऊं कि हमारा परिवार अभी आगे नहीं बढ़ा। नहीं तो हमारे खर्चे भी बहुत
हो जाते”


” क्यों चिंता करते हो? सुमित भैया का अभी तो दो साल का कोर्स ही बाकी रह गया है। उसके बाद तो वो इंजीनियर बन ही जाएंगे। तो कम से कम घर की स्थिति में कुछ तो सुधार होगा। उसके बाद हम भी हमारा परिवार भी आगे बढ़ा लेंगे “
अनु ने महेश को होसला देते हुए कहा।


” मुझे सुमित से उम्मीद बहुत है कम से कम वो पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा तो घर की स्थिति में काफी सुधार हो जाएगा। नहीं तो मम्मी कुछ समझती ही नहीं है। अब देखो ना मानसी के ससुराल सामान देने के लिए भी मैं कर्जा लेकर आया हूं। उसके सास ससुर की एनिवर्सरी है तो उन दोनों को गिफ्ट दे सकते थे। लेकिन मम्मी तो मानसी के
पूरे परिवार को कपड़े देने को तैयार हो रही है”


महेश ने चाय पीते हुए कहा।
” तो आप मना क्यों नहीं कर देते हो? एक बार स्ट्रिक्टली मना कर दो तो मम्मी जी आगे कुछ बोलेगी कि नहीं”
अनु ने कहा।


“मना किया था ना परसों। मम्मी ने कितना हंगामा किया था, याद नहीं तुम्हें। सारा इल्जाम तुम पर ही लगा दिया कि तुमने
ही मुझे सिखाया होगा”
महेश ने अनु की तरफ देखकर कहा। अनु उसके आगे कुछ कह नहीं पाई।
सही तो कह रहा था महेश। कई बार उसने ममता जी को मना किया तो ममता जी ने हमेशा हंगामा कर दिया था। और हर बार इल्जाम सीधा-सीधा अनु पर लगाया था कि यही मना करती है। इसे मेरी बेटी को देना सुहाता नहीं है। आखिरकार


अपनी मम्मी को हंगामा करते देखकर महेश कहीं से भी पैसों का बंदोबस्त करके लाकर दे ही देता।
खैर तब तक सुमित भी घर पर आ गया था। उसने अनु और महेश की सारी बातें सुन ली। पर कहा कुछ नहीं।
अनु ने फटाफट खाना बनाया। दोनों भाई अभी खाना खाने बैठे ही थे कि तब तक ममता जी भी शॉपिंग करके आ गई।
बड़ी खुशी खुशी वो बैग में से कपड़े निकाल कर उनको दिखाने लगी।


” ये मानसी की ननद के लिए और ये उसकी जेठानी के लिए। और यह ड्रेस कंवर साहब के लिए है”
ममता जी बड़ी खुशी खुशी बता ही रही थी कि सुमित ने कहा,
” मम्मी प्रोग्राम तो सास ससुर की एनिवर्सरी का है ना। फिर उसके पूरे परिवार के लिए कपड़े क्यों? आखिर ये फालतू का दिखावा क्यों?”


उसकी बात सुनते ही ममता जी एक पल के लिए चुप हो गई। पर फिर बोली,
” कैसी बात कर रहा है? बेटी के ससुराल जाएंगे तो क्या खाली हाथ जाएंगे? अरे सबके लिए कुछ ना कुछ लेकर जाना
पड़ता है। तुझे क्या पता ये तो रिवाज का है। देना ही पड़ता है। और फिर ये सब देने से बेटी का मान सम्मान बढ़ता है
ससुराल में”


” और फिर बेटे का क्या? कभी बेटों के बारे में सोचा है? ये कैसे रिवाज जो सिर्फ बेटियों का घर भरते हैं और बेटों पर कर्ज का बोझ डालते हैं। और आखिर कर्ज भी उस बात का जो की रिवाज में नहीं है और ना ही मांगे गए हैं”
अचानक सुमित ने कहा।


” खबरदार! जो मेरी बेटी को देने के मामले में कुछ कहा तो। मेरी बेटी को देना बुरा लग रहा है तुम्हें। अरे जब तू कमाने लग जाएगा तब तो बिल्कुल ही नहीं देगा उसे। याद रख बहन बेटियों को देने से बरकत होती है”
ममता जी ने कहा।


” हां मम्मी, मानता हूं। बहन बेटियों को देने से बरकत होती है। लेकिन वो औकात के अनुसार दी जाए तब। कर्जा लेकर
देने से सिर्फ कर्जा ही बढ़ता है, बरकत नहीं बढ़ती। देना है तो रिवाज का दो ना। मना थोड़ी ना कर रहे हैं। ये दिखावे के
चक्कर में बेटों पर बोझ डालना ये तो गलत है ना। अभी तो ले आए हो आप सामान, दे दो। लेकिन अगली बार से अगर जबरदस्ती की आपने तो फिर भैया जवाब नहीं देगा। मैं जवाब दूंगा आपको”


आखिर सुमित का कड़ा रुख देखकर ममता जी ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई। सही भी है कई बार जो बातें बड़े विनम्रता के कारण नहीं समझा पाते, उन्हें छोटे अपनी जिद से समझा देते हैं।
मौलिक व स्वरचित
✍️ लक्ष्मी कुमावत
सर्वाधिकार सुरक्षित

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